Indian Democracy -Challenges and Problems भारतीय लोकतंत्र की समस्यांए और चुनौतियां

Indian Democracy: भारतीय लोकतंत्र की समस्यांए- चुनौतियां

इंडियन डेमोक्रेसी राजनीति विज्ञान

भारत में संविधान द्वारा लोकतांत्रिक शासन- प्रणाली की व्यवस्था की गई है। संविधान के प्रस्तावना में भारत को एक प्रभुसत्ता- संपन्न, समाजवादी ,धर्म-निरपेक्ष लोकतंत्रीय गणराज्य घोषित किया गया है। प्रस्तावना में यह भी कहा गया है कि संविधान का उद्देश्य भारत के सभी नागरिकों को सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक न्याय दिलाना ,विचार ,अभिव्यक्ति, विश्वास,धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रदान करना ,प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता की प्राप्ति कराना है।

भारत में लोकतंत्र की स्थापना हुए इतने वर्ष बीत चुके हैं परंतु व्यवहार में इसे उतनी सफलता नहीं मिली है जो इंग्लैंड ,अमेरिका तथा कुछ अन्य देशों में प्राप्त हुई है । इसका मुख्य कारण भारत की सामाजिक तथा आर्थिक परिस्थितियां हैं जिन्होंने लोकतंत्र को प्रभावित किया है ।

Table of Contents विषय सूची

भारतीय लोकतंत्र की समस्यांए और चुनौतियां ( Indian Democracy -Challenges and Problems in Hindi )

भारतीय लोकतंत्र की कार्यशीलता में हमारे सामने कुछ ऐसी समस्याएं तथा दोष आए हैं जिनके कारण भारत में लोकतंत्र पूरी तरह से सफल नहीं हो पाया है । इनका वर्णन इस प्रकार हैं –

1 ) सामाजिक तथा आर्थिक असमानता ( Social and Economic Inequality )

सामाजिक तथा आर्थिक असमानता ( Social and Economic Inequality ) – लोकतंत्र की सफलता के लिए सामाजिक व आर्थिक समानता का होना एक आवश्यक शर्त है। भारत में लोकतंत्र की स्थापना हुए अर्थ-शताब्दी से अधिक समय हो चुका है किंतु यहां पर सामाजिक व आर्थिक असमानता पाई जाती है। समाज के सभी नागरिकों को समान नहीं समझा जाता। जाति ,धर्म,वंश और लिंग आदि के आधार पर व्यवहार में आज भी भेदभाव किया जाता है।

आर्थिक असमानता लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक है। भारत में एक ओर तो करोड़पति पाए जाते हैं तो दूसरी ओर लाखों लोग ऐसे हैं जिन्हें दो समय का भोजन भी नहीं मिलता । सामाजिक व आर्थिक असमानता के कारण लोग अपने अधिकारों का प्रयोग उचित ढंग से नहीं कर पाते।

यह भी पढ़े –

2 ) गरीबी ( Poverty )

गरीबी ( Poverty in Hindi ) – भारत की अधिकांश जनता गरीब है। गरीब कई बुराइयों की जड़ है। गरीब व्यक्ति को भरपेट भोजन न मिलने के कारण उसका शारीरिक और मानसिक विकास नहीं हो सकता । गरीब नागरिक ना तो स्वतंत्रता पूर्वक अपने वोट का प्रयोग कर सकता है और ना ही चुनाव लड़ सकता है। भुखमरी का शिकार होने के कारण गरीब व्यक्ति अपने अधिकार तथा कर्तव्यों का ठीक तरह से पालन नहीं कर सकता। उसकी सरकार के कार्यों में दिलचस्पी नहीं होती और ना ही वह राजनीतिक कार्यों में कोई सक्रिय भूमिका निभा सकता है।

धनी व्यक्ति चुनाव लड़ सकते हैं और चुनाव जीतने तथा सत्ता में आने के पश्चात वे अपने हितों को बढ़ावा देने के लिए ही कार्य करते हैं। इस प्रकार लोकतंत्र जनता का शासन न बनकर धनी लोगों का शासन बन जाता है । भारत में लोकतंत्र को सफल बनाने के लिए गरीबी को समाप्त करना आवश्यक है।

3 ) निरक्षरता ( Illiteracy )

निरक्षरता ( Illiteracy in Hindi ) – भारत में अभी भी अनपढ़ लोगों की संख्या बहुत अधिक है। निरक्षरता अज्ञानता का दूसरा नाम है । एक अनपढ़ व्यक्ति को अपने अधिकारों के बारे में जानकारी नहीं होती जिसके परिणाम-स्वरुप वह उनका ठीक ढंग से प्रयोग नहीं कर सकता। अनपढ़ व्यक्ति एक अच्छा नागरिक नहीं बन सकता । उसका दृष्टिकोण संकुचित होता है। वह जातिवाद ,संप्रदायवाद ,भाषावाद तथा क्षेत्रवाद के चक्कर में पड़ा रहता है।

लोकतंत्र जनमत पर आधारित होता है। भारत में अनपढ़ता के कारण स्वस्थ जनमत का निर्माण नहीं हो सकता । इसलिए सत्तारूढ़ दल जनता से चुनाव में किए हुए अपने वायदे पूरे करने की ओर कोई ध्यान नहीं देता। अशिक्षित व्यक्ति राजनीतिक नेताओं के झूठे वायदों तथा बातों में आसानी से आ जाता है। इस प्रकार निरक्षरता लोकतंत्र की सफलता में बहुत बड़ी बाधा है।

यह भी पढ़े –

4 ) बेरोजगारी ( Unemployment )

बेरोजगारी ( Unemployment in Hindi ) – निर्धनता व बेकारी का निकट संबंध है। बेकारी निर्धनता को बढ़ाती है। बेकारी का अर्थ है लोगों को अपनी शारीरिक व बौद्धिक आवश्यकता के अनुसार करने के लिए कोई कार्य ना मिलना। भारतवर्ष में यह समस्या बहुत अधिक फैली हुई है। यहां पर शिक्षित व्यक्ति भी बेरोजगार है तथा अशिक्षित भी।

बेरोजगारों की संख्या लाखों में न होकर करोड़ों में है। बेकारी के कारण लोगों की दिन-प्रतिदिन के भोजन व वस्त्र आदि की भी जरूरतें पूरी नहीं हो पाती। इसके परिणाम-स्वरूप न तो व्यक्ति अपनी उन्नति और प्रगति कर पाता है तथा ना ही समाज व राष्ट्र की। बेकार लोगों की प्रवृत्ति गलत और अनैतिक कार्यों की ओर रहती है। बेकार लोग ही तंग आकर चोरी ,डाका व जेब काटने आदि जैसे अनैतिक कार्यों को करने लगते हैं। इस प्रकार बेरोजगारी व बेकारी लोकतंत्र के रास्ते में एक बहुत बड़ी रुकावट है।

5 ) जातिवाद ( Casteism )

जातिवाद ( Casteism in Hindi ) – भारत में जातिवाद की समस्या प्राचीनकाल से चली आ रही है । वर्तमान समय में भारत में 3000 से अधिक जातियां तथा उप-जातियां पाई जाती है। जातिवाद ने भारत की राजनीति को बहुत प्रभावित किया है। यद्यपि सभी राजनीतिक दल जातिवाद को समाप्त करने की आवाज बुलंद करते हैं तथापि व्यवहार में जातिवाद का बोलबाला है। चुनाव में प्राय: सभी पार्टियां उम्मीदवारों का चयन करते समय जाति को महत्व देती है। मतदाता वोट डालते समय भी जाति से प्रभावित होता है और यहां तक कि मंत्रिमंडल बनाते समय भी जाती ही प्रधान होती है। जातिवाद के कारण कई बार राष्ट्रहित को जाती हित के लिए कुर्बान कर दिया जाता है।

यह भी पढ़े –

6 ) साम्प्रदायिकता ( Communalism )

साम्प्रदायिकता ( Communalism in Hindi ) – भारतीय लोकतंत्र शुरू से ही सांप्रदायिकता का शिकार रहा है। भारत का विभाजन सांप्रदायिकता के कारण ही हुआ था। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय यह आशा की गई थी कि भारत में सांप्रदायिकता का अंत हो जाएगा परंतु सांप्रदायिक तत्व आज भी देश में मौजूद है। साम्प्रदायिकता का अर्थ है धर्म के आधार पर एक दूसरे से भेदभाव रखना।

सांप्रदायिकता लोकतंत्र की सफलता में बहुत बड़ी बाधा है। सांप्रदायिकता की भावना दंगे फसाद को बढ़ावा देती है और एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोगों से घृणा करते हैं जिससे राष्ट्रीय एकता को खतरा उत्पन्न हो जाता है। भारत में अनेक बार संप्रदायिक दंगे फसाद हुए हैं। इस प्रकार संप्रदायिकता लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा बनी हुई है।

7 ) बहुदलीय प्रणाली ( Multiple Party System )

बहुदलीय प्रणाली ( Multiple Party System in Hindi ) – लोकतंत्र की सफलता के लिए देश में दो या तीन राजनीतिक दल होने चाहिए। उसी स्थिति में स्थाई सरकार की स्थापना होती है और विरोधी दल भी मजबूत होता है परंतु भारत में राजनीतिक दलों की संख्या बहुत अधिक है। सन 1997 में चुनाव आयोग द्वारा 7 राष्ट्रीय दलों तथा 36 क्षेत्रीय दलों को मान्यता प्रदान की गई थी। वर्तमान स्थिति में अनेकों राष्ट्रीय राजनीतिक दल तथा राज्य स्तरीय दल मान्यता प्राप्त दल के रूप में मौजूद है ।

इतने अधिक राजनीतिक दल होने के कारण किसी एक राजनीतिक दल के लिए पूर्ण बहुमत प्राप्त करना संभव नहीं रहा जिसके परिणामस्वरूप कई दलों की मिली जुली सरकार का गठन किया जाता है। केंद्र में श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी सरकार की गठबंधन में 24 दल शामिल थे ऐसी मिली जुली सरकार प्रायः स्थायी नहीं होती और शासन को सुचारू रूप से चलाने में असमर्थ रहती है।

इसके साथ ही क्षेत्रीय दलों का महत्व दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है जो कि लोकतंत्र की सफलता के लिए ठीक नहीं है। क्षेत्र दल देश के हित में ना सोच कर प्राय अपने क्षेत्र की समस्याओं को ही महत्व देते हैं जिससे राष्ट्रीय हितों को नुकसान पहुंचता है।

यह भी पढ़े –

8 ) संगठित विरोधी दल का अभाव ( Lack of Organized Opposition )

संगठित विरोधी दल का अभाव ( Lack of Organized Opposition ) – लोकतंत्र की सफलता के लिए संगठित विरोधी दल का होना आवश्यक है जिसका भारत में लंबे समय तक अभाव रहा है। सन 1969 से पहले भारत में किसी भी दल को विरोधी दल के रूप में मान्यता की प्राप्ति नहीं थी।

सन 1971 में हुए लोकसभा चुनाव के पश्चात जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो कांग्रेस दल को पहले विरोधी दल के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। सन 1977 में हुए चुनाव में कांग्रेस पार्टी पुनः सत्ता में आ गई और विरोधी दल की फिर वही स्थिति हो गई। संगठित विरोधी दल के अभाव में सत्तारूढ़ दल विरोधी की तनिक भी परवाह नहीं करता और मनमाने ढंग से देश का शासन चलाता है।

पिछले कुछ वर्षों से इस स्थिति में कुछ सुधार हुआ है। सन 1996 में हुए लोकसभा चुनाव के पश्चात भारतीय जनता पार्टी को विरोधी दल के रूप में और सन 1998 तथा 1999 में हुए चुनाव के पश्चात कांग्रेस को विरोधी दल के रूप में मान्यता प्राप्त हुई परंतु बहुदलीय प्रणाली की होते हुए मजबूत विरोधी दल का गठन अभी नहीं हो पाया है। सन 2004 में हुए लोकसभा चुनाव के पश्चात भारतीय राष्ट्रीय लोकतांत्रिक मोर्चा विरोधी दल के रूप में कार्य कर रहा है जिसमें अनेक राजनीतिक दल शामिल है।

9 ) लंबे समय तक एक ही दल की प्रधानता ( Dominance of one Party for a Long Time )

लंबे समय तक एक ही दल की प्रधानता ( Dominance of one Party for a Long Time ) – भारत में बहुदलीय प्रणाली होने के बावजूद काफी लंबे समय तक एक ही राजनीतिक दल ( कांग्रेस ) की प्रधानता रही है । सन 1950 से लेकर 1977 तक केंद्र में लगातार कांग्रेस पार्टी की सरकार बनी रही है ।

सन 1967 तक अधिकतर राज्यों में भी इसी दल की प्रधानता रही है । केंद्र में जनता पार्टी की सरकार केवल 2 वर्ष तक ही चली और सन 1980 में श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में पुनः कांग्रेस पार्टी सत्ता में आ गई । यह स्थिति सन 1989 तक रही जब जनता दल की सरकार बनी परंतु सन 1991 के चुनावों के पश्चात पुनः कांग्रेस पार्टी की सरकार बनी जो 1996 तक चली ।

सन 1996 ,1998 तथा 1999 में हुए लोकसभा चुनाव के पश्चात कांग्रेस दल की प्रधानता समाप्त हो गई है। परंतु 2004 में हुए लोकसभा चुनाव के पश्चात पुनः कांग्रेस के नेतृत्व में मिली जुली सरकार का गठन हुआ है। एक ही राजनीतिक दल का इतने अधिक समय तक सत्ता में बने रहना भी लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है। वर्तमान समय में भारतीय जनता पार्टी की प्रधानता बनी हुई है । 2014 से अब तक भारतीय जनता पार्टी की सरकार केंद्र में शासन कर रही है 2014 से लेकर अब तक श्री नरेंद्र मोदी जी दूसरी बार भारत के प्रधानमंत्री के रूप में कार्य कर रहे हैं ।

यह भी पढ़े –

10 ) राजनीतिक भागीदारी का निम्न स्तर ( Low Level of Political Participation )

राजनीतिक भागीदारी का निम्न स्तर ( Low Level of Political Participation ) – लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक होता है कि देश के लोग राजनीतिक दृष्टि से जागरूक हो और वह राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लें परंतु भारत में लोगों की राजनीतिक सहभागिता का स्तर काफी निम्न है। नागरिक देश की समस्याओं को भली प्रकार से नहीं समझते और उनके प्रति उदासीन रहते हैं। बहुत बड़ी संख्या में लोग अपने मताधिकार का प्रयोग भी नहीं करते। इस प्रकार राजनीति के प्रति लोगों की उदासीनता भारतीय लोकतंत्र की एक बड़ी समस्या है।

11 ) चुनाव बहुत खर्चीले हैं ( Elections are very Expensive )

चुनाव बहुत खर्चीले हैं ( Elections are very Expensive ) – लोकतंत्र में थोड़े थोड़े समय के पश्चात चुनाव होते रहते हैं। चुनाव के द्वारा लोग अपनी इच्छानुसार सरकार का निर्माण करते हैं। भारत में चुनाव इतने अधिक खर्चीला है कि गरीब अथवा मध्यमवर्ग का व्यक्ति चाहे वह कितना ही योग्य तथा समाज सेवा की भावना से प्रेरित क्यों ना हो के लिए, चुनाव लड़ना बहुत कठिन है। चुनाव लड़ना केवल बड़े उद्योगपतियों, व्यापारियों और पूंजीपतियों के बस की ही बात रह गई है।

वर्तमान स्थिति में यद्यपि अक्टूबर 2003 में लोकसभा के चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार के लिए अपने चुनाव पर खर्च करने की अधिकतम राशि 25 लाख कर दी गई है परंतु फिर भी शायद ही कोई उम्मीदवार ऐसा होगा जो इस सीमा के अंदर खर्च करता है। कई उम्मीदवारों द्वारा तो अपने चुनाव पर करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं। चुनाव जीतने के पश्चात विधायक अधिक से अधिक धन इकट्ठा करने का प्रयत्न करते हैं जिससे शासन का समस्त ढांचा भ्रष्टाचार की घेरे में आ जाता है। भ्रष्टाचार कि यह प्रवृत्ति भी भारतीय लोकतंत्र के लिए बड़ी समस्या बनी हुई है।

यह भी पढ़े –

12 ) राजनीतिक दल दृढ़ सिद्धांतों पर आधारित नहीं है ( Political Parties are not Organized on Healthy and Sound Principles )

राजनीतिक दल दृढ़ सिद्धांतों पर आधारित नहीं है ( Political Parties are not Organized on Healthy and Sound Principles ) – भारत में राजनीतिक दलों का गठन दृढ़ आर्थिक तथा राजनीतिक सिद्धांतों के आधार पर नहीं किया गया है । बड़े दलों के बीच भी वैचारिक प्रतिबद्धता का अभाव है। प्रत्येक दल अपने सिद्धांतों के आधार पर नहीं बल्कि अपने नेता के व्यक्तित्व तथा धर्म एवं जाति के आधार पर चुनाव में मतदाताओं से वोट मांगता है।

कई वराजनीतिक दलों का तो गठन ही धर्म ,जाति अथवा प्रांतीयता के आधार पर किया गया है। राजनीतिक दलों में अवसरवादिता अधिक है। चुनाव के समय वे सिद्धांतहीन समझौते करने से जरा भी नहीं हिचकिचाते हैं। राजनीतिक दलों में गुटबंदी भी पाई जाती है जिससे उनमें आंतरिक अनुशासन का अभाव रहता है । आंतरिक फूट के कारण भारत में लगभग सभी दलों का विभाजन हो चुका है।

13 ) दोषपूर्ण चुनाव प्रणाली ( Defective Election System )

दोषपूर्ण चुनाव प्रणाली ( Defective Election System ) – लोकतंत्र बहुमत का शासन है ,परंतु भारतीय लोकतंत्र में चुनाव प्रद्धति ऐसी है कि कोई दल अल्पमत का समर्थन प्राप्त करके भी सत्ता में आ जाता है। वर्तमान चुनाव पद्धति के अंतर्गत लोकसभा तथा राज्य की विधानसभाओं के सदस्यों का चुनाव एक सदस्य निर्वाचन क्षेत्रों में से किया जाता है।

निर्वाचित क्षेत्र में खड़े उम्मीदवारों में से जिस उम्मीदवार को सबसे अधिक मत प्राप्त होते हैं, उसे निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। चाहे उसके मुकाबले में खड़े अन्य उम्मीदवारों द्वारा प्राप्त किए गए कुल मत उससे कितने भी अधिक क्यों ना हो। इससे एक दल को से मिले मतों की तुलना में विधानमंडल में उससे कहीं अधिक स्थान मिलते हैं। यह भी भारतीय लोकतंत्र की एक समस्या है। भारत में वास्तविक बहुमत के शासन की स्थापना करने के लिए चुनाव पद्धति में परिवर्तन करना आवश्यक है।

यह भी पढ़े –

14 ) राजनीतिक दल-बदल ( Political Defections )

राजनीतिक दल-बदल ( Political Defections ) – भारतीय लोकतंत्र की एक अन्य गंभीर समस्या दल-बदल की समस्या है। विधायक अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति करने के लिए अपने दल को छोड़कर दूसरे राजनीतिक दल में शामिल हो जाते हैं। इसका उद्देश्य प्राय: विधायक द्वारा सत्ता का भागीदार बनना होता है। दल-बदलना उन मतदाताओं के साथ बड़ा धोखा करना होता है जिन्होंने चुनाव में उसके पक्ष में मतदान किया होता है। इससे ना केवल प्रशासन में अस्थिरता है बल्कि भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा मिलता है।

दल-बदल के कारण लोकतंत्र में जनता की आस्था कम हो जाती है। भारत में दलबंदी की समस्या को रोकने के लिए यद्यपि सन 1985 में संविधान में 52 वा संशोधन पास किया गया परंतु इस अधिनियम में कुछ त्रुटियां रह जाने के कारण दल-बदल अब भी जारी है और इस पर पूरी तरह काबू नहीं पाया जा सका।

15 ) क्षेत्रीय असंतुलन ( Regional Imbalance )

क्षेत्रीय असंतुलन ( Regional Imbalance ) – भारत एक बड़ा क्षेत्रफल वाला राष्ट्र है। लेकिन सभी क्षेत्रों में आर्थिक विकास एक जैसे नहीं हुआ है जिससे क्षेत्रीय असंतुलन उत्पन्न हो गया है। एक ओर पूर्वी उत्तर प्रदेश ,बिहार ,मध्य प्रदेश जैसे पिछड़े क्षेत्र है तो दूसरी ओर पश्चिमी उत्तर प्रदेश ,हरियाणा, पंजाब इत्यादि विकसित क्षेत्र है। इस क्षेत्रीय असंतुलन के कारण क्षेत्रीयता की भावना पनपती है जो लोकतंत्र के लिए बहुत बड़ी समस्या है।

16 ) सामंती मूल्य ( Feudal Values )

सामंती मूल्य ( Feudal Values ) – मुगलकाल के पहले से ही भारत में सामंतवादी व्यवस्था पाई जाती थी जो अंग्रेजी शासन में पूर्णता: समाप्त नहीं हुई थी। स्वतंत्रता के पश्चात भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाया गया जिसमें सभी बराबर होते हैं। लेकिन पुराने सामंती विचार विशेषकर ग्रामीण व प्रशासनिक क्षेत्र में अब भी विद्यमान है जिसके कारण समाज में तनाव व दंगे होते हैं तथा निम्न वर्गों को शासन के लाभ से वंचित करने के प्रयास किए जाते हैं जो लोकतंत्र के लिए एक बड़ी चुनौती और समस्या भी है ।

यह भी पढ़े –

17 ) विधायकों का निम्न स्तर ( Low Standard of Legislators )

विधायकों का निम्न स्तर ( Low Standard of Legislators ) – भारतीय लोकतंत्र की एक महत्वपूर्ण समस्या निम्न स्तर के व्यक्तियों का विधायक के रूप में चुन कर आना है। भारत में अधिकतर ऐसे विधायक विशेष रूप से राज्य विधानमंडलों में चुनकर आते हैं जो अशिक्षित था तथा साधारण बुद्धि के स्वामी होते हैं। उनमें से अधिकतर स्वार्थी ,बेईमान व रूढ़िवादी होती हैं। उन्हें विधायक के रूप में अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों का ज्ञान ही नहीं होता है। मंत्री के पद को पाने के लिए वे कुछ भी करने के लिए सदा तैयार रहते हैं। चुनाव जीतने के पश्चात वे अपने निर्वाचन क्षेत्र के मतदाताओं से बहुत ही कम संपर्क रखते हैं और अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए कार्य करने में लगे रहते हैं।

18 ) स्वतंत्र तथा ईमानदार प्रेस की कमी ( Lack of Free and Honest Press )

स्वतंत्र तथा ईमानदार प्रेस की कमी ( Lack of Free and Honest Press ) – भारत में स्वतंत्र तथा ईमानदार प्रेस की कमी लोकतंत्र की सफलता के लिए एक बहुत बड़ी समस्या है। देश के समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं का स्वतंत्र तथा ईमानदार होना आवश्यक होता है परंतु भारत में छपने वाले अधिकतर समाचार पत्र व प्रतिकाएँ ना तो पूर्ण रुप से स्वतंत्र है और ना ही इमानदार है। इसका मुख्य कारण यह है कि उनमें से अधिकतर विभिन्न राजनीतिक दलों के साथ जुड़े हुए हैं। इसके अतिरिक्त बड़े-बड़े समाचार पत्र जैसे कि हिंदुस्तान टाइम्स, टाइम्स ऑफ इंडिया आदि बड़े-बड़े उद्योगपतियों तथा सत्तारूढ़ दल के नियंत्रण में रहते हैं। ऐसे समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं से ईमानदारी की आशा नहीं की जा सकती ।

स्वतंत्र प्रेस स्वस्थ जनमत के निर्माण में बहुत सहायक होता है और इसे लोकतंत्र का पहरेदार माना जाता है परंतु भारत में कई समाचार पत्र तो ऐसे हैं जो जातिवाद, संप्रदायवाद ,क्षेत्रवाद ,भाषावाद आदि की भावनाओं में वृद्धि करने की भूमिका निभाते हैं। समाचार पत्रों की भूमिका भारतीय लोकतंत्र के लिए एक बड़ी समस्या बनी हुई है ।

यह भी पढ़े –

19 ) भाषावाद ,क्षेत्रीयता तथा प्रांतीयता की समस्याएं ( Problems of Linguism , Regionalism and Provincialism )

भाषावाद ,क्षेत्रीयता तथा प्रांतीयता की समस्याएं ( Problems of Linguism , Regionalism and Provincialism ) – भारत में भाषावाद, क्षेत्रवाद तथा प्रांतीयता की भावनाएं भी भयंकर रूप धारण कर चुकी है । संविधान द्वारा 18 भाषाओं को मान्यता देने के पश्चात भी भाषावाद की समस्या समाप्त नहीं हुई है। भिन्न-भिन्न भाषाओं को बोलने वाले तथा विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले लोगों द्वारा अपने अलग राज्यों की स्थापना की मांग की जा रही है। क्षेत्रवाद की समस्या तो कई बार राष्ट्रीय एकता तथा अखंडता के लिए भी समस्या बन जाती है।

20 ) सामाजिक तनाव ( Social Tensions )

सामाजिक तनाव ( Social Tensions ) – सामाजिक सहयोग की भावना लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक है । लेकिन राष्ट्रों में भाषावाद, क्षेत्रवाद ,सांप्रदायिकता , जातिवाद इत्यादि अनेक आधारों पर सामाजिक तनाव विकसित हुआ है जो लोकतंत्र के लिए चुनौतियां खड़ी कर रहा है ।

यह भी पढ़े –

21 ) स्वस्थ लोकतंत्रीय परम्पराओं का अभाव ( Lack of Healthy Democratic Traditions )

स्वस्थ लोकतंत्रीय परम्पराओं का अभाव ( Lack of Healthy Democratic Traditions ) – किसी भी देश में लोकतंत्र की सफलता उस देश में स्थापित अच्छी लोकतंत्रीय परंपराओं पर भी निर्भर करती है जिनका भारत में अभाव है। राजनीतिक नेताओं ,मंत्रियों, विधायकों तथा राजनीतिक दलों में स्वार्थ की भावना होने के कारण देश में स्वस्थ लोकतंत्र या परंपराओं की स्थापना नहीं हो पाई है। कई राजनीतिक नेताओं पर भ्रष्टाचार तथा घोटालों के आरोप भी लगाए गए हैं और कुछ के खिलाफ तो यह सिद्ध भी हो चुकी है फिर भी वह कुर्सी का त्याग करने को तैयार नहीं होती और लोग फिर भी उनके पीछे लगे रहते है।

22 ) अलगाववाद ( Separatism )

अलगाववाद ( Separatism in Hindi ) – अलगाववाद का अर्थ एक राज्य के कुछ क्षेत्र का राज्य से अलग होकर एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना करना है। अलगाववाद की भावना प्राय: उन देशों में विकसित होती है जहां पर रहने वाले लोगों में जाति ,धर्म ,भाषा, नस्ल तथा विकास के आधार पर भिन्नता होती है। अलगाववाद की मांग प्राय: संघीय राज्यों में विकसित होती है जहां पर अल्पसंख्यक वर्ग अपनी अलग पहचान को बनाए रखने के लिए या तो कुछ विशेष अधिकारों की मांग करते हैं अथवा राज्य से अलग होकर अपना एक अलग स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की मांग करते हैं। भारत में ऐसी मांग जम्मू और कश्मीर राज्य से लेकर अब तक उत्तर पूर्वी राज्यों तथा पंजाब में सामने आई है।

यह भी पढ़े –

23 ) राजनीतिक हिंसा ( Political Violence )

राजनीतिक हिंसा ( Political Violence ) – वर्तमान समय में भारतीय लोकतंत्र के लिए जो सबसे बड़ी समस्या है वह राजनीतिक हिंसा। राजनीतिक हिंसा भारत की राजनीति व्यवस्था के लिए एक बड़ी चुनौती है जिसने भारतीय लोकतंत्र को बहुत बुरी तरह से प्रभावित किया है। हिंसात्मक गतिविधियों पर जहां कानून व्यवस्था पर प्रभाव पड़ता है, वहां समाज में भय का वातावरण उत्पन्न होता है। ऐसे वातावरण में लोकतंत्र संस्थाएं अपना कार्य ठीक प्रकार से नहीं कर सकती।

चुनाव होते तो है परंतु उनके लिए विभिन्न दलों द्वारा कई अपराधियों को उम्मीदवार बनाया जाता है जो अपना चुनाव जीतने के लिए हिंसात्मक कार्यवाईयाँ या करते हैं। ऐसे वातावरण में साधारण मतदाता अपनी इच्छानुसार अपने मत का प्रयोग नहीं कर पाता।

चुनाव के दौरान हिंसा ,चुनाव बूथों पर कब्जा मतपेटियां लूटना आम बातें हो चुकी है। कई बार तो विरोधी उम्मीदवारों की हत्या भी कर दी जाती है। आतंकवादी संगठन भी मतदाताओं को इतना अधिक भयभीत कर देते हैं और उन्हें चुनाव का बहिष्कार करने के लिए कहते हैं । सरकारी कर्मचारी व अधिकारी भी भय के वातावरण में अपने कर्तव्यों का संविधान तथा कानूनों के अनुसार पालन करने में संकोच करते हैं। हिंसा को दबाने तथा विभिन्न संगठनों द्वारा हिंसा के प्रयोग को रोकने के लिए सरकार को शक्ति का प्रयोग करने के लिए विवश होना पड़ता है।

यह भी पढ़े –

24 ) भ्रष्टाचार ( Corruption )

भ्रष्टाचार ( Corruption ) – भ्रष्टाचार वर्तमान समय में एक ऐसी चुनौती बन चुकी है जो भारतीय लोकतंत्र को बुरी तरह से प्रभावित कर रही है । भ्रष्टाचार एक अन्य ऐसा कारण है जिसने भारतीय लोकतंत्र पर बहुत ही बुरा प्रभाव डाला है । भ्रष्टाचार एक ऐसा रोग है जो भारत के सामाजिक ,आर्थिक तथा राजनीतिक ढांचे की जड़ों को पूरी तरह से खोखला कर रहा है। प्रशासन तथा राजनीति का शायद कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं बचा जिसमें भ्रष्टाचार नहीं पाया जाता।

भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण भारतीय लोगों का नैतिक चरित्र है। भ्रष्टाचार से व्यक्ति में लालच की भावना बढ़ती है तथा उसमें नैतिक गिरावट आती है। एक भ्रष्ट व्यक्ति अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों का ठीक ढंग से पालन करने के योग्य नहीं रहता। भ्रष्टाचार से पूर्ण समाज का वातावरण दूषित होता है जिसका प्रशासन पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

25 ) शिक्षा के असमान अवसर ( Unequal Opportunities of Education )

शिक्षा के असमान अवसर ( Unequal Opportunities of Education ) – आर्थिक और सामाजिक विषमता के कारण सभी वर्गों के बच्चों को शिक्षा के समान अवसर नहीं मिलते। गरीब लोगों के बच्चों को पब्लिक स्कूलों, अच्छे कॉलेजों और विदेशों में भी शिक्षा ग्रहण करने के अवसर नहीं मिलते। बेचारे गरीब लोग अपने बच्चों का सरकारी शिक्षा संस्थाओं का खर्चा भी नहीं सहन कर सकते हैं। गरीब लोगों के बच्चे अच्छे डॉक्टर और इंजीनियर नहीं बन सकते चाहे वह कितने योग्य क्यों ना हो। शिक्षा के असमान अवसर भी भारतीय लोकतंत्र के लिए एक बड़ी समस्या है जिसने बेरोजगारी जैसे समस्या को बढ़ावा दिया है ।

यह भी पढ़े –

निष्कर्ष ( Conclusions )

ऊपर दिए गए विवरण से यह स्पष्ट है कि भारत में लोकतंत्र पूरी तरह से सफल नहीं हुआ है क्योंकि इसकी कार्यप्रणाली को सांप्रदायिकता, जातिवाद, सामाजिक एवं आर्थिक असमानता, भ्रष्टाचार, भाषावाद ,गरीबी सामंतवादी मूल्यों ,हिंसा तथा क्षेत्रीय असंतुलन ने बुरी तरह से प्रभावित किया है । भारतीय लोकतंत्र को उपयुक्त कारकों से उत्पन्न खतरों का सामना करने के लिए संविधान का पालन करना आवश्यक है। इन बुराइयों से लड़ने के लिए राष्ट्रीय एकता व अखंडता की भावना को विकसित करना प्रत्येक नागरिक का परम धर्म है। ऐसे ही रोचक जानकारियों के लिए ज्ञान फॉरएवर पर बने रहे। धन्यवाद

FAQ Checklist

भारतीय लोकतंत्र के तीन समस्याओं का वर्णन करें।

भारतीय लोकतंत्र की कार्यशीलता में हमारे सामने कुछ ऐसी समस्याएं तथा दोष आए हैं जिनके कारण भारत में लोकतंत्र पूरी तरह से सफल नहीं हो पाया है । इनका वर्णन इस प्रकार हैं –
1 ) सामाजिक तथा आर्थिक असमानता
२ ) गरीबी
३) बेरोजगारी

भारतीय लोकतंत्र को प्रभावित करने वाले सामाजिक तत्व कौन से हैं ?

भारतीय लोकतंत्र को प्रभावित करने वाले सामाजिक तत्व निम्नलिखित हैं – 1 ) सामाजिक असमानता 2 ) निरक्षरता 3 ) साम्प्रदायिकता 4 ) भाषावाद 5 ) सामन्तवादी मूल्य 6 ) जातिवाद

भारतीय लोकतंत्र के छह मूलभूत समस्याओं का वर्णन कीजिए ।

भारतीय लोकतंत्र के छह मूलभूत समस्याओं का वर्णन इस प्रकार हैं –
1 ) सामाजिक तथा आर्थिक असमानता
2 ) गरीबी
3 ) बेरोजगारी
4 ) दोषपूर्ण चुनाव प्रणाली
5 ) अलगाववाद
6 ) शिक्षा के असमान अवसर

भारत में गरीबी के कोई पांच कारण बताओ।

भारत में गरीबी के पांच कारण इस प्रकार हैं –
1 ) कृषि का पिछड़ापन
2 ) गलत सरकारी नीतियां
3 ) भारत की बढ़ती जनसंख्या
4 ) बढ़ती मंहगाई 
5 ) भ्रष्टाचार
6 ) शिक्षा के असमान अवसर

निर्धनता भारतीय लोकतंत्र को किस प्रकार प्रभावित करती है?

भारत की अधिकांश जनता गरीब है। गरीब कई बुराइयों की जड़ है। गरीब व्यक्ति को भरपेट भोजन न मिलने के कारण उसका शारीरिक और मानसिक विकास नहीं हो सकता । गरीब नागरिक ना तो स्वतंत्रता पूर्वक अपने वोट का प्रयोग कर सकता है और ना ही चुनाव लड़ सकता है। भुखमरी का शिकार होने के कारण गरीब व्यक्ति अपने अधिकार तथा कर्तव्यों का ठीक तरह से पालन नहीं कर सकता। उसकी सरकार के कार्यों में दिलचस्पी नहीं होती और ना ही वह राजनीतिक कार्यों में कोई सक्रिय भूमिका निभा सकता है। धनी व्यक्ति चुनाव लड़ सकते हैं और चुनाव जीतने तथा सत्ता में आने के पश्चात वे अपने हितों को बढ़ावा देने के लिए ही कार्य करते हैं। इस प्रकार लोकतंत्र जनता का शासन न बनकर धनी लोगों का शासन बन जाता है । भारत में लोकतंत्र को सफल बनाने के लिए गरीबी को समाप्त करना आवश्यक है।

भारत में बेरोजगारी की कोई पांच कारण बताइए ।

1 ) उचित शिक्षा का अभाव
2 ) गलत सरकारी नीतियां
3 ) भारत की बढ़ती जनसंख्या
4 ) बढ़ती मंहगाई 
5 ) भ्रष्टाचार
6 ) शिक्षा के असमान अवसर

भारतीय लोकतंत्र पर सामाजिक असमानता का क्या प्रभाव है?

सामाजिक असमानता ( Social Inequality in Hindi ) – भारतीय समाज में कई शताब्दियों से सामाजिक असमानता पाई जाती रही है जो लोकतंत्र की सफलता के मार्ग में एक बड़ी बाधा है । सामाजिक असमानता का अर्थ है कि नागरिकों में जाति, धर्म ,लिंग तथा वंश आदि के आधार पर भेदभाव किया जाता है । यद्यपि भारतीय संविधान द्वारा देश के सभी नागरिकों को समानता का अधिकार प्रदान किया गया है ,परंतु आज भी देश में नागरिकों में सामाजिक असमानता पाई जाती है ।

आर्थिक असमानता भारतीय लोकतंत्र को किस तरह प्रभावित करती हैं ?

आर्थिक असमानता ( Economic Inequality ) – लोकतंत्र की सफलता में आर्थिक असमानता भी घातक होती है। विश्व में जितनी भी क्रांतियां हुई है उनका मुख्य कारण आर्थिक असमानता ही था। स्वतंत्रता के इतने वर्षों पश्चात भी भारत में आर्थिक विषमताएँ बनी हुई है। धनी वर्ग के थोड़े से लोग पूरे देश का आर्थिक शोषण कर रहे हैं और लोगों का लोकतंत्र से विश्वास उठता जा रहा है।
भारतीय समाज निम्नलिखित आधारों पर आर्थिक असमानता का शिकार है –
1.देश के थोड़े से लोग देश की सारी संपत्ति के मालिक हैं जबकि देश की जनता के एक बड़े भाग को न्यूनतम आवश्यक वस्तुएं भी नहीं मिलती। इस प्रकार संपूर्ण समाज धनी वर्ग और निर्धन वर्ग में बटा हुआ है।
2.वस्तुओं की बढ़ती हुई कीमतों के कारण साधारण जनता बहुत कठिनाई में है
3.औद्योगिक मजदूरों, कृषि मजदूरों और छोटे किसानों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। वे ऋण के बाहर से दबे रहते हैं।
4.9 पंचवर्षीय योजनाएं पूरी हो चुकी है ,परंतु उससे साधारण जनता का कोई भला नहीं हुआ है।
5.अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जन-जातियों को दी गई सुविधाओं का लाभ केवल कुछ परिवारों तक सीमित रहा है। इन जातियों के लिए आरक्षित किए गए बहुत से पर अभी खाली पड़े हैं।

भारतीय लोकतंत्र को सांप्रदायिकता कैसे प्रभावित करती है।

साम्प्रदायिकता ( Communalism in Hindi ) – भारतीय लोकतंत्र शुरू से ही सांप्रदायिकता का शिकार रहा है। भारत का विभाजन सांप्रदायिकता के कारण ही हुआ था। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय यह आशा की गई थी कि भारत में सांप्रदायिकता का अंत हो जाएगा परंतु सांप्रदायिक तत्व आज भी देश में मौजूद है। साम्प्रदायिकता का अर्थ है धर्म के आधार पर एक दूसरे से भेदभाव रखना।
सांप्रदायिकता लोकतंत्र की सफलता में बहुत बड़ी बाधा है। सांप्रदायिकता की भावना दंगे फसाद को बढ़ावा देती है और एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोगों से घृणा करते हैं जिससे राष्ट्रीय एकता को खतरा उत्पन्न हो जाता है। भारत में अनेक बार संप्रदायिक दंगे फसाद हुए हैं। इस प्रकार संप्रदायिकता लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा बनी हुई है।

क्षेत्रीय असंतुलन का क्या अर्थ है?

क्षेत्रीय असंतुलन ( Regional Imbalance ) – भारत एक बड़ा क्षेत्रफल वाला राष्ट्र है। लेकिन सभी क्षेत्रों में आर्थिक विकास एक जैसे नहीं हुआ है जिससे क्षेत्रीय असंतुलन उत्पन्न हो गया है। एक ओर पूर्वी उत्तर प्रदेश ,बिहार ,मध्य प्रदेश जैसे पिछड़े क्षेत्र है तो दूसरी ओर पश्चिमी उत्तर प्रदेश ,हरियाणा, पंजाब इत्यादि विकसित क्षेत्र है। इस क्षेत्रीय असंतुलन के कारण क्षेत्रीयता की भावना पनपती है जो लोकतंत्र के लिए बहुत बड़ी समस्या है।

अलगाववाद किसे कहते हैं?

अलगाववाद ( Separatism in Hindi ) – अलगाववाद का अर्थ एक राज्य के कुछ क्षेत्र का राज्य से अलग होकर एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना करना है। अलगाववाद की भावना प्राय: उन देशों में विकसित होती है जहां पर रहने वाले लोगों में जाति ,धर्म ,भाषा, नस्ल तथा विकास के आधार पर भिन्नता होती है। अलगाववाद की मांग प्राय: संघीय राज्यों में विकसित होती है जहां पर अल्पसंख्यक वर्ग अपनी अलग पहचान को बनाए रखने के लिए या तो कुछ विशेष अधिकारों की मांग करते हैं अथवा राज्य से अलग होकर अपना एक अलग स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की मांग करते हैं। भारत में ऐसी मांग जम्मू और कश्मीर राज्य से लेकर अब तक उत्तर पूर्वी राज्यों तथा पंजाब में सामने आई है।

राजनीतिक हिंसा पर संक्षिप्त नोट लिखे ।

राजनीतिक हिंसा ( Political Violence ) – वर्तमान समय में भारतीय लोकतंत्र के लिए जो सबसे बड़ी समस्या है वह राजनीतिक हिंसा। राजनीतिक हिंसा भारत की राजनीति व्यवस्था के लिए एक बड़ी चुनौती है जिसने भारतीय लोकतंत्र को बहुत बुरी तरह से प्रभावित किया है। हिंसात्मक गतिविधियों पर जहां कानून व्यवस्था पर प्रभाव पड़ता है, वहां समाज में भय का वातावरण उत्पन्न होता है। ऐसे वातावरण में लोकतंत्र संस्थाएं अपना कार्य ठीक प्रकार से नहीं कर सकती।
चुनाव होते तो है परंतु उनके लिए विभिन्न दलों द्वारा कई अपराधियों को उम्मीदवार बनाया जाता है जो अपना चुनाव जीतने के लिए हिंसात्मक कार्यवाईयाँ या करते हैं। ऐसे वातावरण में साधारण मतदाता अपनी इच्छानुसार अपने मत का प्रयोग नहीं कर पाता।
चुनाव के दौरान हिंसा ,चुनाव बूथों पर कब्जा मतपेटियां लूटना आम बातें हो चुकी है। कई बार तो विरोधी उम्मीदवारों की हत्या भी कर दी जाती है। आतंकवादी संगठन भी मतदाताओं को इतना अधिक भयभीत कर देते हैं और उन्हें चुनाव का बहिष्कार करने के लिए कहते हैं । सरकारी कर्मचारी व अधिकारी भी भय के वातावरण में अपने कर्तव्यों का संविधान तथा कानूनों के अनुसार पालन करने में संकोच करते हैं। हिंसा को दबाने तथा विभिन्न संगठनों द्वारा हिंसा के प्रयोग को रोकने के लिए सरकार को शक्ति का प्रयोग करने के लिए विवश होना पड़ता है।

भारतीय लोकतंत्र की मुख्य समस्याएं कौन सी है?

भारतीय लोकतंत्र के छह मूलभूत समस्याओं का वर्णन इस प्रकार हैं –
1 ) सामाजिक तथा आर्थिक असमानता
2 ) गरीबी
3 ) बेरोजगारी
4 ) दोषपूर्ण चुनाव प्रणाली
5 ) अलगाववाद
6 ) शिक्षा के असमान अवसर
7 ) स्वस्थ लोकतंत्रीय परम्पराओं का अभाव
8) भ्रष्टाचार
9) राजनीतिक हिंसा
10) बहुदलीय प्रणाली
11) निरक्षरता
12) साम्प्रदायिकता

भारत में बेरोजगारी कितने प्रकार हैं?

भारत में बेरोजगारी के प्रकार -Types of unemployment in India in Hindi
1.चक्रीय बेरोजगारी (Cyclical Unemployment) …
2.मांग में कमी बेरोजगारी (Demand Deficient Unemployment) …
3.संरचनात्मक बेरोजगारी (Structural Unemployment) …
4.मौसमी बेरोजगारी (Seasonal Unemployment) …
5.प्रतिरोधात्मक बेरोजगारी (Frictional Unemployment)

लोकतंत्र की स्थापना कब हुई?

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। भारत में लोकतंत्र तब आया, जब 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ। यह संविधान विश्व का सबसे लंबा लिखित संविधान है। संविधान में लोकतंत्र की संपूर्ण व्याख्या की गई है।

लोकतंत्र किसका शासन होता है?

लोकतंत्र में जनता ही सत्ताधारी होती है, उसकी अनुमति से शासन होता है, उसकी प्रगति ही शासन का एकमात्र लक्ष्य माना जाता है। परंतु लोकतंत्र केवल एक विशिष्ट प्रकार की शासन प्रणाली ही नहीं है वरन् एक विशेष प्रकार के राजनीतिक संगठन, सामाजिक संगठन, आर्थिक व्यवस्था तथा एक नैतिक एवं मानसिक भावना का नाम भी है।

लोकतंत्र कितने प्रकार का होता है?

लोकतंत्र-शासन-व्यवस्था दो प्रकार की मानी जानी है :
(1) विशुद्ध या प्रत्यक्ष लोकतंत्र 
(2) प्रतिनिधि सत्तात्मक या अप्रत्यक्ष लोकतंत्र

सबसे पहला लोकतांत्रिक देश कौन सा है?

ग्रीस, दुनिया का पहला लोकतांत्रिक देश है।

प्रतिनिधि लोकतंत्र से आप क्या समझते हैं?

प्रतिनिधिक लोकतंत्र (Representative democracy) वह लोकतन्त्र है जिसके पदाधिकारी जनता के किसी समूह द्वारा चुने जाते हैं। यह प्रणाली, ‘प्रत्यक्ष लोकतंत्र’ (direct democracy) के विपरीत है और इसलिए इसे अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र (indirect democracy) और प्रतिनिधिक सरकार (representative government) भी कहते हैं।

अप्रत्यक्ष लोकतंत्र कितने प्रकार के होते हैं?

वर्तमान समय में रूस, फ्रांस, इंगलैंड, जर्मनी, इटली, भारत, अमेरिका आदि देशों में अप्रत्यक्ष लोकतंत्र है। अप्रत्यक्ष लोकतंत्र भी दो प्रकार का होता है। संसदीय शासन प्रणाली एवम् अध्यक्षात्मक। संसदीय शासन प्रणाली के अंतर्गत देश के प्रतिनिधि सभा में बहुमत दल के नेता को प्रधानमन्त्री निर्वाचित किया जाता है।

हम भारत को अप्रत्यक्ष लोकतंत्र क्यों कहते हैं?

सत्ताधारी भूल जाते हैं कि वे सीमित अवधि के लिए सत्ता में हैं, और कुछ वर्षों के बाद उन्हें मतदाताओं का सामना करना पड़ता है। यह दर्शाता है कि अप्रत्यक्ष लोकतंत्र में प्रत्यक्ष लोकतंत्र के विपरीत लोग अपने प्रतिनिधियों को संसद में कानून बनाने या संशोधित करने के लिए चुनते हैं

संगठित विरोधी दल के अभाव से क्या तात्पर्य है ?

संगठित विरोधी दल का अभाव ( Lack of Organized Opposition ) – लोकतंत्र की सफलता के लिए संगठित विरोधी दल का होना आवश्यक है जिसका भारत में लंबे समय तक अभाव रहा है। सन 1969 से पहले भारत में किसी भी दल को विरोधी दल के रूप में मान्यता की प्राप्ति नहीं थी। सन 1971 में हुए लोकसभा चुनाव के पश्चात जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो कांग्रेस दल को पहले विरोधी दल के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। सन 1977 में हुए चुनाव में कांग्रेस पार्टी पुनः सत्ता में आ गई और विरोधी दल की फिर वही स्थिति हो गई। संगठित विरोधी दल के अभाव में सत्तारूढ़ दल विरोधी की तनिक भी परवाह नहीं करता और मनमाने ढंग से देश का शासन चलाता है।
पिछले कुछ वर्षों से इस स्थिति में कुछ सुधार हुआ है। सन 1996 में हुए लोकसभा चुनाव के पश्चात भारतीय जनता पार्टी को विरोधी दल के रूप में और सन 1998 तथा 1999 में हुए चुनाव के पश्चात कांग्रेस को विरोधी दल के रूप में मान्यता प्राप्त हुई परंतु बहुदलीय प्रणाली की होते हुए मजबूत विरोधी दल का गठन अभी नहीं हो पाया है। सन 2004 में हुए लोकसभा चुनाव के पश्चात भारतीय राष्ट्रीय लोकतांत्रिक मोर्चा विरोधी दल के रूप में कार्य कर रहा है जिसमें अनेक राजनीतिक दल शामिल है।

और पढ़े –