Meaning , Criticism of Theory of Surplus Value in Hindi , मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत अर्थ ,आलोचना,विपक्ष में तर्क

Marxism’s Theory of Surplus Value | अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत अर्थ ,आलोचना,विपक्ष में तर्क

मार्क्सवाद राजनीति विज्ञान

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आधुनिक समाजवाद या साम्यवाद का जन्मदाता जर्मन दार्शनिक कार्ल मार्क्स कहा जाता है। कार्ल मार्क्स ही पहले दार्शनिक था जिसने यह बताया कि पूंजीवाद का अंत और साम्यवाद की स्थापना अवश्य होगी।

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मार्क्स ने सैद्धांतिक आधार पर ही साम्यवाद को न्यायसंगत ही नहीं बताया अपितु यह सिद्ध किया कि सामाजिक विकास के सिद्धांत के अनुसार साम्यवाद की स्थापना अनिवार्य है।

मार्क्सवाद के सिद्धांत के निम्नलिखित तत्व है- द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ,इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या या ऐतिहासिक भौतिकवाद ,वर्ग संघर्ष का सिद्धांत, अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत, पूंजीवाद का स्वयं नाश, क्रांति तथा सर्वहारा वर्ग की तानाशाही, वर्ग विहीन समाज का उदय ।

Table of Contents विषय सूची

मार्क्स का अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत क्या है ( Meaning of Marxism Theory of Surplus value in Hindi )

Theory of Surplus Value अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत का विवेचन मार्क्स द्वारा अपनी पुस्तक ‘दास कैपिटल‘ में किया गया है। मार्क्स द्वारा इस सिद्धांत का प्रतिपादन यह दिखाने के लिए किया गया कि पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपतियों द्वारा श्रमिकों का शोषण किस प्रकार से किया जाता है।

मार्क्स के मूल्य सिद्धांत पर अर्थशास्त्रीय रिकार्डो का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। मार्क्स ने रिकार्डो से मूल्य का श्रम सिद्धांत लेकर उसे समाजवादी रूप देने का कार्य किया है। फिर भी अपनी मौलिकता प्रदर्शित करने के लिए मार्क्स कहता था की रिकार्डो को श्रम मूल्य के बदले श्रम शक्ति के विषय में विचार करना चाहिए।

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Theory of Surplus Value -मूल्य के श्रम सिद्धांत का साधारण अर्थ यह है कि अंत में किसी वस्तु का विनिमय मूल्य उसके उत्पादन में लगे श्रम की मात्रा पर निर्भर करता है। मार्क्स के मूल्य सिद्धांत ( Theory of Surplus Value ) पर रिकार्डो के प्रभाव की चर्चा करते हुए वेपर ने लिखा है कि मार्क्स का अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत रिकार्डो के सिद्धांत का ही एक व्यापक रूप है।

मार्क्स अपने अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत ( Theory of Surplus Value ) का प्रतिपादन करते हुए प्रत्येक वस्तु के दो प्रकार के मूल्य बतलाता है -पहला है उपयोग मूल्य, दूसरा है विनिमय मूल्य। उपयोग मूल्य का निर्धारण उपयोगिता तथा आवश्यकता के आधार पर निर्धारित होता है परंतु किसी वस्तु के मूल्य निर्धारण में उसका उपयोग मूल्य महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि विनिमय मूल्य महत्वपूर्ण है।

उदाहरण के लिए कुएं में भरा हुआ पानी उपयोगी होने के कारण उपयोगी मूल्य तो रखता है परंतु जब तक उसे कुएं से खींचकर बाहर नहीं निकाला जाता तब तक उससे प्यास नहीं बुझाई जा सकती। अतः इस उद्देश्य से पानी को कुएं से बाहर खींचने के लिए जो श्रम किया जाता है वही उसके विनिमय मूल्य को निर्धारित करता है।

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अतः जब किसी प्राकृतिक पदार्थ पर मानव श्रम खर्च होता है तो यह मानव श्रम उसका विनिमय मूल्य उत्पन्न करता है। इस आधार पर मार्क्स कहता है कि प्रत्येक वस्तु का वास्तविक मूल्य वह श्रम है जो उसे मानव उपयोगी बनाने के लिए उसे पर खर्च किया जाता है क्योंकि वही उसमें विनिमय मूल्य पैदा करता है।

मार्क्स श्रम को मूल्य का मुख्य तत्व निर्धारित करने के पश्चात उसी के आधार पर अपने अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत ( Theory of Surplus Value ) का प्रतिपादन करता है। उसका कहना है की वस्तु के मूल्य को निर्धारित करने वाला तत्व यद्यपि श्रमिकों द्वारा किया गया श्रम है तथापि उसका श्रम तभी लाभदायक साबित हो सकता है जबकि वह उत्पादन के अन्य साधनों भूमि ,पूंजी ,तकनीक आदि के साथ उत्पादन कार्य में प्रयोग किया जाए।

पूंजीवादी व्यवस्था में इन साधनों का स्वामित्व श्रमिकों के हाथों में न होकर पूंजीपतियों के हाथों में होता है। श्रमिक अपना जीवन निर्वाह करने के लिए अपने श्रम को बेचने के लिए विवश होता है। वह अपने श्रम के माध्यम से उत्पादन तो करता है परंतु पूंजीपति लाभ की भावना से प्रेरित होकर उसके श्रम की पूरी मजदूरी नहीं देते जिससे श्रमिक पूंजीपतियों के शोषण का शिकार होते हैं।

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मार्क्स के अनुसार प्रत्येक वस्तु का वास्तविक मूल्य उस पर खर्च किए गए केवल श्रम के अनुसार होता है परंतु बाजार में वह वस्तु काफी ऊंचे दामों पर बेची जाती है और उसकी बिक्री से प्राप्त होने वाला अतिरिक्त धन ( Theory of Surplus Value ) पूंजीपतियों द्वारा मुनाफे के रूप में अपने पास रख लिया जाता है। मार्क्स के अनुसार पूंजीपतियों द्वारा अपने पास रख लिया गया यह धन ही अतिरिक्त मूल्य है।

अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत की आलोचना ( Criticism of the Theory of Surplus Value in Hindi )

Theory of Surplus Value -अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत का सार यह है कि प्रत्येक वस्तु का वास्तविक मूल्य इस बात से निर्धारित होता है कि उसके उत्पादन में सामाजिक दृष्टि से उपयोगी कितना श्रम खर्च हुआ है। इस संबंध में कोकर ने लिखा है कि मार्क्स का अंतिम निष्कर्ष यह है कि इन अवस्थाओं को समाप्त करने का एकमात्र उपाय व्यक्तिगत भाड़े,ब्याज, लाभ के सभी सुयोगों का सर्वनाश है।

मार्क्स द्वारा प्रतिपादित अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत ( Theory of Surplus Value ) की आलोचकों ने निम्नलिखित बातों के आधार पर आलोचना की है-

श्रम ही उत्पादन तथा मूल्य का एकमात्र स्रोत नहीं ( Labour is not the only source of Production and Value )

मार्क्स द्वारा श्रम को ही उत्पादन का एकमात्र स्रोत घोषित किया गया है और उसे ही किसी वस्तु के विनिमय मूल्य का अंतिम निर्धारक तत्व माना गया है। यद्यपि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि श्रम उत्पादन की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण तत्व है परंतु श्रम को ही एक इसका एकमात्र स्रोत नहीं माना जा सकता।

उत्पादन में श्रम के अतिरिक्त भूमि पूंजी मशीन तथा संगठन भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जिनकी अनुपस्थिति में केवल श्रम कुछ भी नहीं कर सकता। अतः अतिरिक्त मूल्य ( Theory of Surplus Value ) इन सभी तत्वों का सामूहिक फल है केवल श्रम का ही नहीं।

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इसी प्रकार श्रम ही मूल्य का एकमात्र निर्धारक तत्व नहीं है। एक वस्तु का मूल्य निर्धारण करने में श्रम के अतिरिक्त अन्य तत्व जैसे वस्तुओं की उपयोगिता ,उपलब्धि तथा मांग आदि भी महत्वपूर्ण होते हैं। मूल्य निर्धारण पर परिस्थितियों का भी काफी प्रभाव पड़ता है।

संपूर्ण अतिरिक्त मूल्य लाभ नहीं है ( The Whole Surplus value is not Profit )

मार्क्स संपूर्ण अतिरिक्त मूल्य को लाभ मानता है जो ठीक नहीं है। एक पूंजीपति को उसे अतिरिक्त लाभ में अनेक अन्य खर्च भी करने पड़ते हैं जैसे कारखाने का सुधार ,मशीनों की रिपेयरिंग, श्रमिकों को बोनस देना, भत्ते तथा अन्य सुविधाएं देना आदि शामिल है।

यह सभी खर्च अतिरिक्त मूल्य में से ही किए जाते हैं जिनकी मार्क्स ने कोई चर्चा नहीं की है। उसने संपूर्ण अतिरिक्त मूल्य को ही पूंजीपति का लाभांश घोषित कर दिया है।

मार्क्स द्वारा मानसिक श्रम की उपेक्षा ( Marx ignores Mental Labour )

मार्क्स ने केवल शारीरिक श्रम को ही श्रम माना है और मानसिक श्रम की उपेक्षा की है। वास्तव में तकनीकी ज्ञान ,संगठन, बुद्धि तथा व्यवसाय कुशलता वस्तुओं के निर्माण और फिर उन्हें बाजार में बेचने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। उद्योगों से प्राप्त होने वाला लाभांश बहुत हद तक इन तत्वों पर भी निर्भर करता है।

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अस्पष्ट सिद्धांत ( Theory is not clear )

आलोचकों के अनुसार मार्क्स के सिद्धांत का एक बड़ा दोष यह है कि इसमें मूल्य और कीमत जैसे शब्दों का प्रयोग मनमानी ढंग से किया गया है। मार्क्स के अनुसार इनका वास्तविक अर्थ क्या है इस बात का पता लगाना काफी कठिन है।

Gray ने लिखा है कि कोई भी हमें यह नहीं बता सकता की मूल्य से मार्क्स का वास्तविक अभिप्राय क्या था। इसके अतिरिक्त मार्क्स ( Theory of Surplus Value ) द्वारा पूंजीपति और सामान्य मजदूर का जिस रूप में वर्णन किया गया है उससे वह वर्तमान वास्तविक जगत के नहीं बल्कि कल्पना लोक की प्रणाली लगते हैं।

आधुनिक युग के अनुकूल नहीं ( Not Suitable For Modern Time )

मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत ( Theory of Surplus Value ) में अनेक विरोधाभास दिखाई देते हैं। मार्क्स एक और मान्यता है कि पूंजीपति अतिरिक्त मूल्य अथवा मुनाफा बढ़ाने के लालच में नई लगा मशीन लगाता है और दूसरी ओर यह भी कहता है कि मशीनों, कच्चे माल आदि से कोई अतिरिक्त मूल्य प्राप्त नहीं होता।

मार्क्स की विचारधारा की अवास्तविकता इसी बात से स्पष्ट हो जाती है कि मजदूर दुगने या तिगुने कर दीजिए मुनाफा भी अपने आप दोगुना या तिगुना हो जाएगा। क्या उसमें किसी प्रकार की कुशलता, प्रबंध ,संगठन, मशीनरी या योग्यता की कोई आवश्यकता नहीं होगी।

मार्क्स का यह कहना भी ठीक नहीं है कि अतिरिक्त मूल्य ( Theory of Surplus Value ) से नई पूंजी अपने आप बनती चली जाती है। यदि वास्तव में ऐसा होता तो उद्योगों को अधिक ब्याज पर ऋण लेने तथा अपने हिस्से बेचकर पूंजी प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं करना पड़ता।

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मांग पूर्ति के सिद्धांत की अवहेलना ( The Principle of Demand and Supply Ignored )

आलोचकों का कहना है कि मार्क्स द्वारा मांग पूर्ति के सिद्धांत की पूर्ण रूप से अवहेलना की गई है। किसी भी वस्तु का मूल्य निर्धारण करने में उसकी मांग तथा पूर्ति काफी हद तक प्रभावित करती है। वैसे भी अकाल तथा युद्ध के समय वस्तुएं के मूल्य में वृद्धि कर दी जाती है।

मार्क्स एक ओर यह कहता है कि पूंजीपति अपने लाभ को बढ़ाने के लिए आधुनिक मशीन लगाता है ताकि वह उनके द्वारा उत्पादन को बढाकर और श्रमिकों को कम से कम मजदूरी देकर अधिकतर अतिरिक्त मूल्य ( Theory of Surplus Value ) प्राप्त कर सके किंतु इसके दूसरी ओर वह यह भी कहता है कि अतिरिक्त मूल्य उसे श्रमिकों से ही प्राप्त होता है। यह दोनों बातें परस्पर विरोधी है।

सिद्धांत आर्थिक कम प्रचारात्मक अधिक ( Theory is less Economic ,more Propaganda )

आलोचकों का कहना है कि मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत ( Theory of Surplus Value ) का अर्थशास्त्रीय महत्व कम और प्रचारात्मक महत्व अधिक है क्योंकि इसका उद्देश्य वस्तु के मूल्य के कारण ही विधिवत विवेचना नहीं बल्कि पूंजीवादी व्यवस्था में श्रमिक वर्ग के साथ किए जाने वाले अन्याय का प्रचारक अधिक है।

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FAQs Marxism’s Theory of Surplus Value

अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत क्या है ?

अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत का विवेचन मार्क्स द्वारा अपनी पुस्तक ‘दास कैपिटल‘ में किया गया है। मार्क्स द्वारा इस सिद्धांत का प्रतिपादन यह दिखाने के लिए किया गया कि पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपतियों द्वारा श्रमिकों का शोषण किस प्रकार से किया जाता है।

अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत की आलोचना।

मार्क्स द्वारा प्रतिपादित अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत ( Theory of Surplus Value ) की आलोचकों ने निम्नलिखित बातों के आधार पर आलोचना की है- श्रम ही उत्पादन तथा मूल्य का एकमात्र स्रोत नहीं , संपूर्ण अतिरिक्त मूल्य लाभ नहीं है , मार्क्स द्वारा मानसिक श्रम की उपेक्षा।

आलोचक किस आधार पर अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत की आलोचना करते हैं ?

आलोचकों का कहना है कि मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत ( Theory of Surplus Value ) का अर्थशास्त्रीय महत्व कम और प्रचारात्मक महत्व अधिक है क्योंकि इसका उद्देश्य वस्तु के मूल्य के कारण ही विधिवत विवेचना नहीं बल्कि पूंजीवादी व्यवस्था में श्रमिक वर्ग के साथ किए जाने वाले अन्याय का प्रचारक अधिक है।

मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत के विपक्ष में तर्क।

मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत ( Theory of Surplus Value ) में अनेक विरोधाभास दिखाई देते हैं। मार्क्स एक और मान्यता है कि पूंजीपति अतिरिक्त मूल्य अथवा मुनाफा बढ़ाने के लालच में नई लगा मशीन लगाता है और दूसरी ओर यह भी कहता है कि मशीनों, कच्चे माल आदि से कोई अतिरिक्त मूल्य प्राप्त नहीं होता।

अतिरिक्त मूल्य की क्या अवधारणा है?

अतिरिक्त मूल्य. ‘ ये वो मूल्य है जो एक मज़दूर अपनी मज़दूरी के अलावा पैदा करता है. मार्क्स के मुताबिक़, समस्या ये है कि उत्पादन के साधनों के मालिक इस अतिरिक्त मूल्य को ले लेते हैं और सर्वहारा वर्ग की क़ीमत पर अपने मुनाफ़े को अधिक से अधिक बढ़ाने में जुट जाते हैं।

अधिशेष मूल्य से क्या है?

मूल्य के श्रम सिद्धांत का साधारण अर्थ यह है कि अंत में किसी वस्तु का विनिमय मूल्य उसके उत्पादन में लगे श्रम की मात्रा पर निर्भर करता है। मार्क्स के मूल्य सिद्धांत ( Theory of Surplus Value ) पर रिकार्डो के प्रभाव की चर्चा करते हुए वेपर ने लिखा है कि मार्क्स का अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत रिकार्डो के सिद्धांत का ही एक व्यापक रूप है।

मार्क्स के सिद्धांत में किस बात की उपेक्षा हुई हैं ?

मार्क्स ने केवल शारीरिक श्रम को ही श्रम माना है और मानसिक श्रम की उपेक्षा की है। वास्तव में तकनीकी ज्ञान ,संगठन, बुद्धि तथा व्यवसाय कुशलता वस्तुओं के निर्माण और फिर उन्हें बाजार में बेचने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। उद्योगों से प्राप्त होने वाला लाभांश बहुत हद तक इन तत्वों पर भी निर्भर करता है।

मार्क्सवाद और साम्यवाद में क्या अंतर हैं?

मार्क्सवाद एक दर्शन है, जबकि साम्यवाद मार्क्सवादी सिद्धांतों पर आधारित सरकार की एक प्रणाली है । मार्क्स ने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी जिसमें उत्पादन के साधनों पर श्रमिकों का स्वामित्व हो। वास्तविक दुनिया के साम्यवाद में, सरकारें उत्पादन के साधनों की मालिक होती हैं।

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